|
Organized By :
श्री नायर
संगठीत रिटेल में एफडीआई से कोई असर नहीं -श्री नायर
नई दिल्ली/ मल्टी ब्राण्ड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने पर इसकी थोक में आलोचना हो रही है। लेकिन चर्चा के दौरान इस विषय पर प्रकाश डालने की तुलना में गर्मागर्मी ज्यादा हो रही है। सामान्य आपत्तियां इस मुद्दे की बारीकियों की तुलना में ज्यादा हंै। आलोचना में किरानों स्टोरों की होने वाली दुर्दशा और किसानों के संभावित शोषण के डर की हो रही है और इन दो मुख्य बातों पर चिंता जाहिर की जा रही है।
टेक्सटाइल एवं गारमेण्ट उद्योग का रिटेल क्षेत्र बहुत बड़ा है और देश में कुल खुदरा बिक्री में टेक्सटाइल उत्पादों का हिस्सा ज्यादा है। इसलिए इस उद्योग को इस मुद्दे पर ज्यादा सक्रियता दिखानी चाहिए।
इस समय संगठित रिटेलिंग जिसमें मल्टी ब्राण्ड रिटेलिंग देश में मौजूद है और यह महानगरों में दिन-प्रतिदिन प्रख्यात होता जा रहा है और इसका रुख छोटे शहरों की ओर भी हो रहा है। माॅल्स न केवल खरीददारी के केन्द्र बल्कि यह मनोरंजन, खाने-पीने एवं मौज मस्ती के केन्द्र भी बनते जा रहे हैं। इसके लिए किसी एफडीआई की जरूरत नहीं है और इस ट्रेण्ड को एफडीआई अथवा बिना एफडीआई के आने वाले वर्षों में तेजी से बढ़ना ही है।
खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ उठाई जा रही आपत्तियां सभी संगठित रिटेल पर लागू होती हैं। वालमार्ट और इसके जैसे अन्य का प्रवेश 21वीं सदी की ईस्ट इंडिया कम्पनी साबित हो सकती है और यह राज्यांे को अपनी अधीन कर सकती है, यह समझना बहुत भोलापन होगा।
यह मान लेना बहुत भोलापन लगता है कि इस मामले में विदेशी कम्पनी या देश, अर्थव्यवस्था और वर्तमान सदी के राजनीतिक प्रशासन को हथिया लेंगे। इसलिए किराना स्टोरों एवं किसानों की दुर्दशा के मुद्दे को गंभीरता से लेना चाहिए। देश के महानगरों में पिछले कई वर्षों से बहुत सारे माॅल चल रहे हैं लेकिन इनका छोटे खुदरा व्यापारियों पर कोई ठोस असर नहीं पड़ा है। ऐसे में माॅल्स को देशी पूंजी से चलाएं अथवा विदेशी पूंजी से चलाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
अभी तक सरकार ने विदेशी कम्पनियों के 51 प्रतिशत निवेश की अनुमति दी है। लेकिन हमारे खुदरा व्यापार मंे विदेशी कम्पनियांे के पूर्णरूप से आ जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि किराना स्टोर और संगठित रिटेलरों के उत्पाद, मूल्य का आधार एवं ग्राहक सब अलग-अलग हैं। एक गृहणी ब्रेड और मसाले की खरीददारी अपने पड़ौस के किराना स्टोर से ही करेगी क्योंकि वह यह इंतजार नहीं करेगी कि जब अगली बार माॅल जाएगी तब तक ब्रेड और मसाले नहीं लेगी क्योंकि माॅल वह तभी जाएगी, जब ज्यादा सामान खरीदना हो और उसके पास पर्याप्त समय हो।
छोटे स्टोर का कुछ कारोबार जरूर शिफ्ट हो जाएगा। यदि संगठित रिटेलरों के आने से सभी छोटे स्टोर बंद हो जाएंगे, चैपट हो जाएंगे तो यह कितनी बड़ी त्रासदी होगी। संगठित रिटेलर उपभोक्ताओं को मजबूर नहीं कर सकते, वे छोटे रिटेलरों के ग्राहकों को सस्ते दामों का आॅफर देकर अथवा बेहतर सेवा देकर ग्राहकों को अपनी ओर खींच सकते हैं। यदि कोई स्टोर खराब सेवा दे रहा है अथवा ज्यादा मूल्य वसूल रहा है और यदि संगठित रिटेलर के आने वह बंद होता है तो उस स्टोर का नुकसान पर ग्राहकों का लाभ होगा। उस ऐसे छोटे स्टोर के बंद होना दुख की बात होगी या खुशी की।
रही किसानों की बात तो यह अनुभव से साबित हो चुका है कि कृषि उत्पादों के विपणन में बिचैलियों की वजह से किसानों को कम दाम मिलते हैं और संगठित रिटेलरों द्वारा केन्दीकृत वसूली सिस्टम से किसानों को बेहतर मूल्य मिलते हैं। निश्चित रूप से समान बिचैलियों की तुलना में किसानों के लिए ज्यादा चिंता होगी। वर्तमान विपणन सिस्टम में किसान से ज्यादा बिचैलिए ज्यादा कमाते हैं। परिवहन, स्टोरेज एवं वसूली की सही सुविधा नहीं होने की वजह से वर्तमान में देश में कृषि उत्पादों में खाद्यानों का लगभग 40 प्रतिशत बर्बाद हो जाता है। संगठित रिटेलरों द्वारा प्रबंध की हुई कुशल आपूर्ति श्रंृखला से यह नुकसान रुकेगा, जो किसान की आय बनेगा।
1980 में कम्प्यूटर के मामलें में भी ऐसा हो रहा था और रिटेलिंग के मामले में यह इतिहास दोहराएगा। जो लोग आज रिटेल में एफडीआई का विरोध कर रहे हैं, कल उन्हंे इसे प्रोत्साहित करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
'
|
|