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राजनीतिक दल भी शामिल होने चाहिए

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केंद्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा स्वीकृत लोकपाल विधेयक को अन्ना हजारे ने स्वीकार कर दिया और अब नए आन्दोलन की शुरूआत का शंखनाद भी किया है। केन्द्र सरकार स्वयं देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के बारे में गंभीर नहीं लगती है। यही कारण है कि लम्बे संघर्ष व बातचीत के बाद भी जो मसौदा लोकपाल से संबंधित सरकार द्वारा स्वीकार किया गया है। वह आधा अधूरा ही लगता है। इस प्रस्तावित विधेयक में मंत्रिमण्डल ने राजनीतिक दलों, धार्मिक व दान प्राप्त करने वाली संस्थाओं, सरकार द्वारा समर्थित व सरकार से सहायता लेने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने का निर्णय लिया है, जबकि सब जानते हैं कि भारत के चुनाव भ्रष्ट तन्त्र व भ्रष्ट चन्दे के आधार पर ही परिचालित होते हैं। करोड़ों रूपया एक संसदीय सीट पर खर्च होता है, और राजनीतिक दल उस धन को अवैध रूप से अपने प्रत्याशी को उपलब्ध कराते हैं और इसी से देश की सत्ता का निर्माण होता है। सरकार का गठन भी होता है। देश में भ्रष्टाचार का उद्गम स्थल ही राजनीतिक तंत्र है और प्रस्तावित विधेयक में इसी तंत्र को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने का भी प्रयास किया गया है। सरकार स्वयं नहीं चाहती है कि राजनीतिक दलों को प्राप्त धनराशि की किसी भी स्तर पर कोई स्वतंत्र जांच हो। देश के अधिकांश राजनेताओं के द्वारा बड़ी-बड़ी स्वयं सेवी संस्थाओं का भी संचालित किया जाता है और उनकी राजनीति का आधार भी यह संस्थाये हंै जिन्हें सरकार के साथ विदेश से भी धन प्राप्त होता है। मंत्रिमण्डल ने इन संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे से बाहर रखने का निर्णय लिया है। राजनीतिक दलों को चन्दा सार्वजनिक कोष की लूट से प्राप्त होता है। बड़ी-बड़ी कंपनियां व धनाढ्य लोग कर की चोरी की आड़ में सरकार व सत्तारूढ़ दल को चुनावी चन्दा देने का कार्य करते हैं। व्यवसाय जगत को भी अगर व्यवसाय करना है तो राजनीतिक दल को चन्दा तो देना ही पड़ता है। सत्तारूढ़ दल को सर्वाधिक चन्दा प्राप्त होता है तथा सत्ता में लौटने वाले संभावित दल को भी बड़े पैमाने पर चन्दा उद्योग व व्यवसाय जगत के साथ देश के भूमाफिया के द्वारा दिया जाता है। अधिकांश चन्दा बिना रसीद के ही प्राप्त होता है। अथवा देश के चुनावी तंत्र के साथ काले धन की महत्वपूर्ण साझेदारी रही है। इस जड़ तक पहुंचने के लिए यह आवश्यक है कि लोकपाल को इन राजनीतिक दलों के चन्दे की भी जांच करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और सरकार ने इस संस्था के अधिकार क्षेत्र के ही राजनीतिक दलों को बाहर कर दिया है। देश के सम्पदा प्राॅपर्टी उद्योग में सर्वाधिक कालेधन का प्रचलन देखा जा सकता है। क्योंकि मकानों की रजिस्ट्रियां ही आधे पैसे पर होती है। यह महत्वपूर्ण क्षेत्र राजनीति पर बहुत ही गहरी पकड़ रखता है और राजनीति को जांच के दायरे से बाहर रखने का तात्पर्य है कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र को भी पूरी स्वतंत्रता काले धन के प्रसार हेतु दे देना है। संपदा प्राॅपर्टी में तो बराबर की अर्थव्यवस्था का परिचालन हो रहा है। अर्थात 50 प्रतिशत धन का प्रवाह काले धन के रूप में देखने को मिल जाता है। लोकपाल के गठन का उद्देश्य तो बहुत ही साफ-सुथरा है लेकिन सरकार लोकपाल का परिचालन अपने तौर तरीके से करना चाहती है जो सार्थक परिणाम देश को दे सकेगा, इसमें संदेह है।

                 

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